
हां, तुम जानते थे...
उन पलों में मेरा खो जाना फिर वहीं ठहर जाना,
इन पावों का थमनाऔर बदन का सिहरना
हां तुम जानते थे ...
इसलिए ले गए उस राह जहां
मैं खोई रही तुममें और भूली खुद को
अनजान बने तकते रहे तुम भी मुझको
हां तुम जानते थे...
मेरा बिखरना और फिर एक हो जाना
पतझड़ में उड़ना और बिन पतवार बहना
तुम जानते थे
तुम्हारे र्स्पश और छुअन याद रहते हैं मुझे
जिसमें दिनों तक बसती रहती हूं मैं
और फिर एक दिन वही खालीपन
हां तुम जानते थे...
यादों की बुनियादों में बसे
हर पल का हिसाब जिंदगी में दे पाई नहीं
पर अब कोई राह नहीं
खो गए हैं रास्ते और तुम भी साथ नहीं
हां, तुम जानते थे...
आएगा एक दिन ऐसा भी
बूंदों से वजूद में ढूंढ रही होंगी मैं तुम्हें
और तुम तब भी दूर बैठे मुझसे
अनजान दुनिया की खबरों में गुम
कई मुस्कराहटों के साथ करोगे
नए पलों की शुरुआत
हां, तुम जानते थे...
बहुत भावपूर्ण!!
ReplyDeleteसुंदर भाव-सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना है। बहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteबेहद भावस्पर्शी और बेलाग सी लगी आपकी कविता..अनकहे सच को खोलती..परत-दर-परत..खूबसूरत है ब्लॉग है आपका.
ReplyDeleteकविता उम्दा है
ReplyDeleteदो दोस्तों कि याद आ गयी है एक कविता से दूसरा ब्लॉग की सूरत देख कर.
sahaspoorn sankalpon ka swagat, himalaya koi unchayee ki seema nahin.
ReplyDeletesundar abhivyakti.
ReplyDeleteइस रचना के माध्यम से अपनी सम्वेदना को आपने बखूबी पेश किया है,...
ReplyDeleteapane lakshya se to aapko bandhana hi padega.sahasik unmuktata ka swagat.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख है। ब्लाग जगत मैं स्वागतम्।
ReplyDeletehttp://myrajasthan.blogspot.com
ब्लॉग जगत में स्वागत और बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण स्वागत है ।
ReplyDeleteआप का स्वागत करते हुए मैं बहुत ही गौरवान्वित हूँ कि आपने ब्लॉग जगत मेंपदार्पण किया है. आप ब्लॉग जगत को अपने सार्थक लेखन कार्य से आलोकित करेंगे. इसी आशा के साथ आपको बधाई.
ReplyDeleteब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं,.
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अच्छी रचना ।
ReplyDeleteलिखते रहें ।
its really mindblowing ... keep it up, i proud of you as a friend with love.
ReplyDeleteभूमिका की कलम से एक कविता की बड़ी भूमिका
ReplyDeleteसाधारण शब्दों से शुरू हुई एक बड़ी कविता लिखी है भूमिका ने। इसमें कुछ चीजों को आवृति या ईको के माध्यम से कहा गया है। कई चीजों और वाक्यों को हम एक बार बोलते हैं तो असर कुछ और होता है लेकिन उसी शब्द या वाक्य को जब बार बार कहा जाता है तो अर्थ कुछ और हो जाता है। इस कविता में ‘हां, तुम जानते थे...’ ऐसा ही एक शब्द विन्यास है। हां तुम जानते थे की आवृति कवि के जिद्दी व्यक्तित्व की झलक भी देती है। कवि कह रही है कि मैं अपने आसपास को ही नहीं तुम्हे भी जानती थी और अपनी जिद से तुम्हे खोज रही थी। इसके अतिरिक्त ‘तुम जानते थे’ कह कर कवि यह भी बता देती है कि मैं भी तुम्हारे बारे में सब कुछ जानती थी क्योंकि ‘तुम जानते थे’ जब कोई कहता है तो इसका मतलब होता है कि कहने वाला पहले से ही उसके बारे में सब कुछ जानता है या जान लेता है.... और इस तरह से बहुत आहिस्ता से यह कविता जीवन के इंटरनल एक्सचेंज की कविता बन कर हमारे सामने आ जाती है। इसे कविता के भाषा में ‘कविता का फोर्स’ कहा जाता है।
कवि आगे कहती है
हां तुम जानते थे...
मेरा बिखरना और फिर एक हो जाना
पतझड़ में उड़ना और बिन पतवार बहना....
यह अनुभव होना अपने बिखरने और टूटने का ..ये बहुत कीमती अनुभव है। यह चाहे खुद से हो या अन्य आश्रित, यह तभी संभव होता है जब आप भाव और विचार की सजगता अवेयरनेस आफ थॉट के साथ जीवन को जी रहे होते हैं। पूरी कविता की बात करें तो कई चीजों पर बात की जा सकती है।
आइए कुछ थोड़ी सी बात इसके कला पक्ष या आर्टिस्टिक सेंस की करते हैं। कवि कई बार खुद ही अपने सिंबल प्रतीक और बिम्ब लेकर आता है। जितना फोर्स कविता में होता है ये सब चीजें अपने आप कविता का फार्म तय करती हैं। पतवार पतझड़ जैसे बिम्ब और प्रतीक दोनों ही यहां हैं। एक दिनों में बसने का अच्छा बिम्ब है
तुम्हारे र्स्पश और छुअन याद रहते हैं मुझे
जिसमें दिनों तक बसती रहती हूं मैं
आशा भी कितनी है, वही ऊपर कहा था कि जिद की हद तक .... ‘बूंदों के वजूद में....खोजना’ पूरी लाइन है ‘बूंदों से वजूद में ढूंढ रही होंगी मैं तुम्हें
... ’ कितनी कठिन कल्पना है लेकिन उतनी ही मार्मिक जीवंत....भूमिका कलम की ये कविता कई लेयर अपने आप में समेंट कर हमारे सामने आती है। लेकिन दिक्कत ये है कि भूमिका जैसी कवि अगर साहित्य की मैन स्ट्रीम लाइन में जाती हैं, इससे उनका ही नहीं साहित्य को भी एक बड़ी कवि मिल सकती है। कविता पर आज इतना ही....बाकी फिर कभी
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
9826782660
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Ravindra Swapnil Prajapati
Peoples Samachar
6, Malviye Nagar, Bhopal MP
blog: http://commingage.blogspot.com
मन को गहरे तक स्पर्श करती हुई चलती चली जाती है आपकी रचना
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